पहले नोटबंदी फिर जीएसटी और अब कोरोना वाइरस से बुरी तरह से संक्रमित भारतीय अर्थव्यवस्था

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लॉकडाउन के महीनों में जीडीपी की सिकुड़न गंभीर हो चुकी है। निर्यात, निवेश और खपत- विकास के सभी तीन इंजनों में अनियंत्रित गिरावट हुई।

आधुनिक इतिहास में भारत पहला देश होगा जो इस तरह की मंदी झेलेगा। कम-से-कम तीन या चार साल लग जाएंगे इससे उबरने में।

भारत के रिटेल एसोसिएशन के अनुसार, कपड़े, इलेक्ट्रॉनिक सामान, फर्नीचर- जैसे गैरअनिवार्य सामान की बिक्री मई में 80 प्रतिशत तक गिर गई है। यहां तक कि किराना और दवाएं- जैसे अनिवार्य सामान की बिक्री भी 40 फीसद तक गिर गई। सीईएसपी के रिसर्च स्कॉलर्स ने 1,000 लोगों के बीच किए स्वतंत्र देशव्यापी सर्वेक्षण में पाया कि कम-से-कम 80 प्रतिशत लोगों ने एसी, वाशिंग मशीन, टीवी और इस तरह के अन्य सामान, ऑटोमोबाइल और रियल एस्टेट में खरीद की योजनाओं को तो स्थगित कर दिया और घरेलू यात्राओं को भी टाल दिया है।

 वर्तमान राजस्व वर्ष में जीडीपी का 30 प्रतिशत तक सिकुड़ना तय है।  आकलन है कि  जीडीपी 204 लाख करोड़ से गिरकर 130 लाख करोड़ आ जाएगा। जीडीपी अनुपात में टैक्स 16 प्रतिशत से घटकर 8 प्रतिशत रह जाएगा। ऐसी हालत में, सरकार के लिए वेतन भुगतान करना या रक्षा बजट में धन लगाना मुश्किल होगा।

50 करोड़ लोग शहरी और उपशहरी इलाकों में रहते हैं और काफी सारे गैरवेतनभोगी लोग हैं जो संगठित क्षेत्र में काम नहीं करते। सरकार को  मनरेगा के अंतर्गत साल में 100 दिनों के काम की सीमा खत्म करकरऔर ग्रामीण क्षेत्रों में 202 रुपये प्रतिदिन का भुगतान बढ़ाकर 350 रुपये करने और शहरी क्षेत्रों में इसे 450 रुपये रखना चाहिए।

बैंकों में तरलता बढ़ाना तब तक बेमतलब है जब तक वह धन अर्थव्यवस्था में नहीं पहुंचता। कम दर पर ऋण का फायदा सामान्यतया पहले के ऋण चुकाने में पुराने कर्जदार ही उठाएंगे और यह धन कुल निवेश में काम नहीं आएगा। अर्थशास्त्री कहते हैं कि गैर खाद्य गतिविधियों के लिए ऋण लेने की विकास दर पहले से ही नकारात्मक है।

कम-से-कम 20 करोड़ लोगों ने अपनी नाकरियां खोई हैं। अगर आप एक परिवार में चार लोग भी मानें, तो सरकार अगर हस्तक्षेप नहीं करती है, तो 80 करोड़ लोग गरीबी और भुखमरी की तरफ जा रहे हैं। वे गरीबी रेखा से नीचे जा चुके हैं।

गरीब और बेरोजगार को बचाए रखने के लिए सरकार को मनरेगा और अन्य स्कीमों में तालमेल बिठाने के बाद अतिरिक्त 15 लाख करोड़ रुपये लगाने की जरूरत होगी।  जो धनी-मानी लोग हैं, वे भी स्टॉक और रियल एस्टेट में अपने निवेश की कीमत तो कम ही पाएंगे।

लगभग उनके धन की कीमत करीब एक तिहाई गिर जाएगी। ऐसी हालत में, संपत्ति कर भी कोई विकल्प नहीं है। आरबीआई से उधार लेना (मोनेटाइज करना) होगा जो बॉण्ड जारी करेगा। पूरे संगठित क्षेत्र के लोगों को तपिश झेलनी होगी और वेतन में कटौती झेलनी होगी। अन्यथा, व्यवस्था ढह जाएगी।’

जमीनी तथ्य भी इन बातों का समर्थन करते हैं। अप्रैल, 2020 में सरकार का जीएसटी संग्रह पिछले साल की इसी अवधि की तुलना में केवल 15 प्रतिशत रहा। कम मांग और उत्पादन के कारण कॉरपोरेट टैक्स भी गिरेगा। नौकरियां जाने और वेतन में कटौती से आयकर भी कम होगा। ऐसी हालत में मोनेटाइजेशन ही एकमात्र रास्ता है। इंडियन एक्सप्रेस के आइडियाज फॉर इंडिया में जून के पहले सप्ताह में प्रकाशित भारत के पूर्व प्रधान सांख्यिकीविद प्रणब सेन के विस्तृत विश्लेषण में बताया गया है कि भारत की अर्थव्यवस्था न सिर्फ इस साल बल्कि 2021-22 में भी सिकुड़ेगी। यह अध्ययन बताता है कि भारत का सकल जीडीपी 2023-24 तक 2019-20 स्तर पर ही संघर्ष करता रहेगा। यह इस सरकार के कार्यकाल का अंतिम साल होगा।

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