पढ़ी-लिखी, आत्मनिर्भर और सुंदर निक्की दहेज की बलि क्यों चढ़ी? सबक नहीं लिया तो यूं ही जलाई जाएंगी बेटियां

राष्ट्रीय जजमेंट 

नोएडा: दिल दहला देने वाला ग्रेटर नोएडा दहेज कांड हमें मजबूर करता है कि हम खुद से पूछें कि पढ़ी-लिखी, आत्मनिर्भर और सुंदर निक्की को आखिर दहेज़ के लिए कैसे जला दिया गया? गलती हमारी है। हम दहेज के सामने कभी मजबूती से खड़े नहीं हुए। सदियों पुरानी कुप्रथा को हमने परंपरा का मुलम्मा पहना कर नॉर्मलाइज दिया। अब वक़्त आ गया है कि माता-पिता और समाज एकजुट होकर कहें, दहेज़ को सिरे से नकारो। साफ़ कहो: NO MEANS NO इसके लिए मां-बाप को एजुकेट करना जरूरी हो गया है।
ग्रेटर नोएडा दहेज़ कांड में निक्की को दहेज़ के लिए ज़िंदा जलाए जाने की हैवानियत पर पूरा देश आक्रोश में है। 28 साल की खूबसूरत, पढ़ी-लिखी, ब्यूटी पार्लर चलाकर पैसे कमाने वाली आत्मनिर्भर लड़की को महज इसलिए ज़िंदा जलाकर मार दिया गया, क्योंकि वह अपने ससुराल वालों की दहेज़ की मांग पूरी नहीं कर पाई। सोशल मीडिया पर वायरल हुई इस दर्नाक और खौफनाक घटना की रील्स भले आपको किसी फ़िल्मी या सास-बहू कहानियों की अतिरंजना लगें, मगर एक सवाल हथौड़े की तरह जेहन पर वार कर रहा है कि ऐसे समय में जब हमारे देश में लड़कियां शिक्षित हैं, आत्मनिर्भर हैं और सुंदर हैं, तब भी वे दहेज की बलि कैसे चढ़ सकती हैं?
एक लंबे अरसे से हम हैं, ‘मुलगी शिकली प्रगति झाली’ (लड़की शिक्षित हुई, उन्नति हुई), ‘बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ’। हमने बेटी पढ़ा भी ली, उसे इंडिपेंडेंट भी बना दिया, फिर भी उसे ज़िंदा जला दिया गया?! इस राक्षसी कांड के बाद बहुत जरूरी हो गया है कि दहेज के खिलाफ पहले पेरेंट्स अपना स्टैंड पक्का करें।

‘बेटी पराया धन है’, सोच से छुटकारा’बेटी पराया धन है’, डोली जाए वहीं अर्थी उठे’, ‘असली वारिस बेटा है’ इन दकियानूसी कहावतों से सबसे पहले पीछा छुड़ाना होगा। फैमिली कोर्ट लॉयर वेदिका चौबे कहती हैं, ‘सदियों की कंडीशनिंग ने हमें सिखा दिया कि बेटी दूसरे घर की अमानत है। कन्यादान सबसे बड़ा दान माना गया, यहां तक कि लोग कहते हैं बेटी की शादी हो गई तो तीर्थ पूरा हुआ।’ यही सोच माता-पिता को दहेज देने पर मजबूर करती है। जबकि बराबरी का रास्ता यह है कि बेटी को दान या बोझ नहीं, अधिकार और सुरक्षा दी जाए, जैसे एफडी या प्रॉपर्टी उसके नाम पर।
‘जब रिश्ते की बातचीत के दौरान ही लड़के वाले दहेज मांगने लगें, उसी वक्त उस रिश्ते को ठुकरा दीजिए। उनकी उनकी नीयत शुरुआत में ही सामने आ गई।’-
मृणालिनी देशमुख, डिवोर्स लॉयर

आज की बेटियां पैरेंट्स के लिए खुद स्टैंड ले रही हैं। एक केस में लड़की-लड़के ने शादी का खर्च बराबर बांटा और पेरेंट्स ने बेटी के नाम एफडी कराई। हां, दहेज एक्ट 498A पर अतीत में गलत इस्तेमाल के आरोप लगे और कानून को नरम करना पड़ा। अब बेल आसानी से मिल जाती है। लेकिन इससे दहेज अपराध की गंभीरता कम नहीं होती। ज़रूरी है कि कानून का दुरुपयोग न हो, पर इसका डर दहेज अपराधियों को बचाने का हथियार भी न बने।’

दहेज मांगने वाले रिश्ते पर साफ इनकार
‘शादी के वक्त “स्त्री धन” के नाम पर दहेज देने की सदियों पुरानी रिवायत आसान नहीं, पर असंभव भी नहीं है। सिलेब्रिटी डिवोर्स वकील मृणालिनी देशमुख कहती हैं,’जब रिश्ते की बातचीत के दौरान ही लड़के वाले दहेज मांगने लगें, उसी वक्त उस रिश्ते को ठुकरा दीजिए। जिनकी नीयत शुरुआत में ही सामने आ गई, उनसे बेटी का रिश्ता क्यों करना? शादी के बाद उनकी मांगों का अंत कभी नहीं होगा।’ समाज क्या कहेगा, बेटी बिन ब्याही रह जाएगी, इन सोचों से ऊपर उठना होगा।

पांच करोड़ की शादी और दो करोड़ का दहेज भी दें, बेटी की सुरक्षा की गारंटी नहीं। तमिलनाडु के एक केस में यही हुआ। भव्य शादी और मोटा दहेज देने के बावजूद ससुराल वालों का लालच बढ़ता गया। प्रताड़ना से तंग आकर लड़की ने आत्महत्या कर ली। अपने सुसाइड नोट में उसने लिखा, ‘मैंने मायके वालों को अत्याचार बताए, मगर उन्होंने मुझे ससुराल में रहने की ही नसीहत दी। अब आत्महत्या के अलावा कोई चारा नहीं।’

माता-पिता भी बराबरी के दोषी
दहेज की मांग करने वाला ससुराल पक्ष हमेशा खलनायक ठहरता है, लेकिन क्या मायके पक्ष निर्दोष है, जो यह मांग पूरी करता है? सोशल एक्टिविस्ट रंजना कुमारी कहती हैं, ‘दहेज मांगना क्रिमिनल ऑफेंस है, लेकिन इस लेनदेन में दोनों पक्ष शामिल होते हैं। इसलिए माता-पिता की भी जिम्मेदारी बनती है। मैंने हमेशा आवाज उठाई है कि माता-पिता की प्रॉपर्टी में बेटे-बेटी को बराबरी का हक मिलना चाहिए। पर होता यह है कि बेटी की शादी में ही सारा पैसा खर्च हो जाता है, दहेज़ ने उन्हें थका दिया होता है। ऐसे में जब ससुराल में बेटी प्रताड़ित होती है, तो वही माता-पिता उसे रिश्तेदारों, पंचायत या समाज के दबाव का हवाला देकर वापस भेज देते हैं। यानी वे भी कहीं-न-कहीं बेटी को ‘ऑब्जेक्ट’ ही मान रहे होते हैं। परंपरा के नाम पर वे अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते।’

उनके मुताबिक, कई बार बेटियां खुद दहेज देने से इनकार करती हैं, मगर माता-पिता ‘शादी कर देने’ के दबाव में मान जाते हैं। एक केस में तो लड़की ने दहेज़ के विरोध में अपने माता-पिता से बगावत कर दी, शादी छोड़ दी और वकालत की पढ़ाई शुरू की। वहीं रिलेशनशिप काउंसलर माधवी सेठ मानती हैं, ‘जरूरी है कि गांव-कस्बों के माता-पिता के लिए ओरिएंटेशन प्रोग्राम चलें, ताकि सोच बदले और वे शिक्षित हों। शहरी इलाकों की लड़कियां और परिवार कहीं-न-कहीं दहेज के खिलाफ स्टैंड ले रहे हैं, लेकिन दूसरे और तीसरे दर्जे के शहरों-गांवों में यह विभीषिका अब भी जारी है।’

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