बसपा के मुस्लिम प्रत्याशी किसे पहुचायेंगे फायदा किसका करेंगे नुकसान

राष्ट्रीय जजमेंट न्यूज़

लखनऊ। भारतीय जनता पार्टी किसी भी चुनाव में एक-दो अपवाद को छोड़कर मुसलमान प्रत्याशी नहीं उतारती है। इसके पीछे बीजेपी का दो टूक कहना है कि उसे मुस्लिम वोट मिलते ही नहीं हैं। मुसलमान क्यों बीजेपी को वोट देने से कतराता है, इसकी तह में जाया जाये तो यही लगता है कि बीजेपी का हिन्दुत्व के प्रति नरम और तुष्टिकरण की सियासत के खिलाफ सख्त रवैया मुस्लिम वोटरों को रास नहीं आता है। यह सब तब हो रहा है जबकि मोदी सरकार ने तत्काल तीन तलाक जैसी रूढ़िवादी विचारधारा के खिलाफ कानून बनाकर मुस्लिम महिलाओं को काफी मुश्किल हालातों से बचा लिया है। इसी तरह से मोदी और योगी सरकार की तमाम लाभकारी योजनाओं का फायदा सभी समाज के लोग उठा रहे हैं, जिसमें मुस्लिम भी शामिल हैं,फिर भी इनका (मुसलमानों) वोट बीजेपी को नहीं जाता है। इसके उलट तुष्टिकरण की सियासत करने वाले सपा-बसपा जैसे दल बड़ी संख्या में मुस्लिम नेताओं को चुनावी मैदान में उतारते रहे हैं, लेकिन इस बार इन दलों ने भी अपनी रणनीति बदल दी है। अबकी सपा-बसपा जैसे दलों ने भी मुस्लिम प्रत्याशी उतारने से परहेज किया है। इसके पीछे की इन दलों के नेताओं की सोच पर ध्यान दिया जाये तो इन दलों के आलाकमान का मानना है कि मुस्लिम वोट तो उनके हैं ही, प्रत्याशी किसी भी जाति का हो, यह वोट तो उसकी झोली में आ ही जाता है, लेकिन जब मुस्लिम प्रत्याशी मैदान में उतारा जाता है तो हिन्दू वोटर उससे छिटक जाते हैं। इसी लिये अबकी से सपा-बसपा द्वारा मुस्लिम नेताओं को चुनावी सियासत से दूर रखा गया है। इन दलों की यह रणनीति कितनी परवान चढ़ेंगी यह तो 04 जून को नतीजे आने के बाद ही पता चलेगा, लेकिन हाल फिलहाल में समाजवादी पार्टी अपनी इस रणनीति में कुछ हद तक सफल होती नजर आ रही है।

कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश में भाजपा अपने ब्राह्मण, क्षत्रिय और कुर्मी कार्ड पर कायम है, भाजपा ने भूमिहार, पंजाबी, पारसी, कश्यप, बनिया (ओबीसी), यादव, तेली, धनगर, धानुक, वाल्मीकि, गोंड, कोरी के एक-एक उम्मीदवार उतारे हैं। यानी 1.3 हिस्सेदारी दी है। जबकि 2019 में कश्यप, यादव, राजभर, तेली, वाल्मीकि, धनगर, कठेरिया, कोरी, गोंड के एक-एक उम्मीदवार को मैदान में उतारा था। लेकिन प्रतिशत 1.3 ही था। जबकि सपा ने माय (मुस्लिम-यादव) की रणनीति बदल दी है। इस बार उसने कुर्मी और मौर्य-शाक्य-सैनी-कुशवाहा जाति के प्रत्याशी ज्यादा उतारे हैं। भाजपा ने सबसे ज्यादा टिकट ब्राह्मणों-ठाकुरों को दिए हैं, तो सपा ने ओबीसी कार्ड खेला है। प्रदेश में भाजपा 75 और उसके सहयोगी दल 5 सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं। भाजपा ने अपने कोटे की सीटों में 21 प्रतिशत ब्राह्मण और 17 प्रतिशत ठाकुर प्रत्याशी दिए हैं। जबकि, उसके 8 प्रतिशत उम्मीदवार कुर्मी हैं। भाजपा ने कमोबेश यही रणनीति वर्ष 2019 के चुनाव में अपनाकर अपने 78 में से 73 प्रत्याशी जिताए थे। तब भाजपा के ब्राह्मण, ठाकुर और कुर्मी प्रत्याशी क्रमशः 22, 18 और 9 प्रतिशत थे। जबकि वर्ष 2019 में भाजपा ने दो सीटें सहयोगी अपना दल (एस) को दी थीं। वर्ष 2019 के चुनाव में सपा-बसपा का गठबंधन होने के बावजूद सपा को अपेक्षित सफलता नहीं मिली थी। उसके खाते में सिर्फ पांच सीटें ही आई थीं। यही वजह है कि इस बार सपा ने टिकट देने की अपनी रणनीति में बड़ा बदलाव किया है।
समाजवादी पार्टी ने 2019 में प्रदेश की 80 में से 37 सीटों पर चुनाव लड़ा था। तब उसने सबसे ज्यादा टिकट यादवों को दिए थे। दूसरे नंबर पर मुसलमान थे। उसके 27 प्रतिशत प्रत्याशी यादव और 11 प्रतिशत मुस्लिम थे। वहीं, कुर्मियों को आठ प्रतिशत टिकट दिए थे। इस बार समाजवादी पार्टी प्रदेश में 62 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। इनमें से रॉबर्ट्सगंज को छोड़कर बाकी सभी सीटों पर उसके प्रत्याशी घोषित किए जा चुके हैं। यादव और मुस्लिम मतदाता सपा के आधार वोटबैंक माने जाते हैं। मुस्लिमों की यूपी की आबादी में हिस्सेदारी करीब 20 फीसदी है। पर, सपा ने इस बार टिकटों में उन्हें(मुसलमानों को) आबादी के मुकाबले काफी कम, महज 6.5 फीसदी की ही भागीदारी दी है। पिछड़ी जातियों में आबादी के लिहाज से यादवों की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा है, लेकिन अखिलेश ने इस बार यादव प्रत्याशियों के रूप में अपने परिवार के ही पांच नेताओं को उतारा है। वर्ष 2019 के 27 प्रतिशत यादव प्रत्याशियों के मुकाबले यह आंकड़ा मात्र 8 फीसदी ही है। समाजवादी पार्टी ने कुर्मी, मौर्य, कुशवाहा, शाक्य, सैनी जातियों को टिकट देने में प्राथमिकता दी है। पिछड़ी जातियों में कुर्मी-पटेल की हिस्सेदारी 7.5 प्रतिशत है, जबकि सपा ने इस बिरादरी के 10 प्रत्याशी उतारकर उन्हें टिकटों में 1.6 प्रतिशत की भागीदारी दी है। इसी तरह से ओबीसी जातियों में मौर्य-कुशवाहा-शाक्य-सैनी की भागीदारी सात फीसदी है, जिन्हें सपा ने 10 प्रतिशत टिकट दिए हैं। राजनैतिक पंडित सपा की इस बदली सियासत और अपने आधार वोट बैंक के बजाय अन्य जातियों को तरजीह देना उसकी सोशल इंजीनियरिंग का हिस्सा बता रहे हैं।सपा ने वाल्मीकि, गुर्जर, राजभर, भूमिहार, पाल, लोधी के एक-एक उम्मीदवार उतारे हैं। यानी 1.6 फीसदी हिस्सेदारी दी है। जबकि 2019 में लोधी, वाल्मीकि, कायस्थ, जाटव, कुशवाहा, नोनिया, चौहान, कोल, धानुक के एक-एक उम्मीदवार को मैदान में उतारा था। लेकिन प्रतिशत 2.7 ही था खैर, यादवों और मुसलमानों को उचित प्रतिनिधित्व न देना सपा को भले ही अभी फायदेमंद दिख रहा हो, पर इसके दूरगामी परिणाम नुकसानदायक हो सकते हैं। क्योंकि मुसलमानों के मन में अभी से यह बात ‘घर’ करने लगी है कि सपा वोट तो मुसलमानों का लेती है मगर मुस्लिम नेताओं की चुनाव में भागीदारी देने में कंजूसी करती है।

Comments are closed.

This website uses cookies to improve your experience. We'll assume you're ok with this, but you can opt-out if you wish. Accept Read More