प्रवासी मजदूरों -एक ने कहा,”बुलाया तो जाएंगे वापस”, तो दूसरा बोला, “अब कभी नहीं जाऊंगा”
दूसरे राज्यों से घर लौटे लाखों श्रमिक यहीं रहेंगे? या फिर कोरोना के थमने के बाद उनकी वापसी होगी?
ये सवाल आजकल गांव-गांव में है। संवाददाता ने इस मुद्दे पर विभिन्न जिलों में जाकर घर लौटे श्रमिकों से बात की। उनका मन टटोलने की कोशिश की। सवालों पर ज्यादातर ने पलटकर सवाल उछाला- यहां करेंगे क्या? यहां तो सिर्फ मनरेगा में काम मिल रहा। कैसे गुजारा होगा? जवाब ऐसे भी हैं-हम ये काम करते थे, वो करते थे…
मनरेगा में काम करेंगे तो सब क्या कहेंगे? यानी स्टेटस का भी सवाल है। इन बातों से साफ है कि वे लौटना चाहते हैं। पर कब? कैसे? इन सवालों पर कुछ चहकते हुए कहते हैं-सेठजी का फोन आया था। कंपनी का फोन आया था।

बस, कोरोना थम जाए। तो कुछ ऐसे भी मिले जो सरकार के रोजगार देने के वादे को तौल रहे हैं। वे नजर रखे हुए हैं कि यहीं कोई अच्छा अवसर मिल जाए।
बाहर नहीं गए तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था ठप हो जाएगी
उन्नाव की ग्राम पंचायत बक्सर के ग्राम प्रधान प्रतिनिधि ज्ञानेंद्र बहादुर सिंह ‘मुन्ना सिंह’ बताते हैं कि उनके यहां गुजरात और महाराष्ट्र से 81 मजदूर घर लौटे हैं।
कुशल मजदूर बाहर जाकर रुपये कमाते हैं और अपने-अपने घर पैसा भेजते हैं, इससे ही ज्यादातर निर्माण के कार्य होते हैं। इनसे स्थानीय स्तर पर भी लोगों को काम मिलता है।
अगर वे काम पर बाहर नहीं जाएंगे तो स्थानीय स्तर पर उनके लायक काम मिलना मुश्किल है। इन स्थितियों में ग्रामीण अर्थव्यवस्था ठप होने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है।
मुंबई से बाइक से तय किया सफर, कंपनी ने बुलाया तो जाएंगे वापस
बाराबंकी के मालिनपुर गांव के युवा हिमांशु सिंह में गजब का जज्बा है। वह मुंबई की एक फार्मा कंपनी में काम करते थे। लॉकडाउन हुआ तो कुछ दिन तो इंतजार किया।
कंपनी ने वेतन आधा किया तो घर लौटने का मन बना लिया। किसी तरह के पब्लिक ट्रांसपोर्टेशन की सुविधा तो थी नहीं, इसलिए अपनी बुलेट मोटर साइकिल ही दौड़ा दी। हिमांशु 11 मई को अपने घर पहुंच गए थे।

वह बताते हैं कि फिलहाल उनसे किसी अफसर या एजेंसी ने रोजगार के बाबत संपर्क नहीं किया है। क्वारंटीन पूरा कर चुके हैं। अब भविष्य की चिंता सताने लगी है।
हिमांशु का इरादा तो फार्मा से संबंधित अपना काम शुरू करने का है, पर इसके लिए काफी रुपयों की जरूरत होगी। वह कहते हैं, ब्याज पर रुपये लेकर काम शुरू करने से तमाम तरह के दबाव बढ़ जाते हैं।
इसलिए सभी उपायों पर विचार कर रहे हैं। हिमांशु कहते हैं कि इतने दिनों में कई तरह की दिमागी उलझनों से गुजर रहे हैं। पहले कभी इतनी उलझन महसूस नहीं हुई। क्या वापस जाने की सोच रहे हैं? इस सवाल पर हिमांशु कहते हैं कि फिलहाल कोई बेहतर विकल्प नजर नहीं आ रहा है।
कंपनी वापस बुलाती है तो जाएंगे। हालांकि, पहले वे कोरोना के लिहाज से स्थितियां सामान्य होने का इंतजार करेंगे।
स्टेटस के खिलाफ मानते हैं मनरेगा का काम
अंबेडकर नगर की भीटी तहसील के ग्राम खेमापुर के संतोष कुमार मुंबई में मार्बल लगाने का काम करते हैं। किन्हीं वजहों से वह 27 जनवरी को वापस आ गए थे।
अभी तक जॉब कार्ड नहीं बना है। इसलिए मनरेगा में काम नहीं मिल पा रहा है। संतोष कहते हैं कि मनरेगा में काम मिलेगा तो कर सकते हैं। हालांकि, यह बात उन्होंने बहुत मन मसोसकर कही।
पास में खड़े दूसरे लोग कहने लगे कि बाहर से आए तमाम श्रमिक मनरेगा में फावड़ा उठाने को अपने स्टेटस के खिलाफ मानते हैं। ज्यादातर कुशल श्रमिक मनरेगा में काम करने के इच्छुक नहीं हैं।
रायबरेली के ब्लॉक बछरावां के गांव खैरहनी के सुधीर मिश्रा बाजपुर में एक स्टील प्लांट में काम करते थे। उन्होंने भी मनरेगा में काम करना शुरू नहीं किया, जबकि गांव में उनके लिए यही काम है। इसी गांव के रोहित दिल्ली में एक परचून की दुकान में काम करते थे।![Migrant worker]()
कहते हैं कि वहां मालिक के पास कुछ रुपये फंसे हैं। इसलिए काम के लिए तो जाना ही पड़ेगा। हालांकि, अब दिल्ली और गांव, दोनों ही जगह काम करने की सोच रहे हैं।
वापस जाने के अलावा विकल्प ही क्या है?
मालिनपुर के ही नीरज सिंह दिल्ली में एक कारखाने में इलेक्ट्रिशयन हैं। वहां वह मुख्य रूप से क्रेन चलाने का काम करते हैं। 3 मई को वापस घर आ चुके हैं।
मनरेगा में काम करने के इच्छुक नहीं हैं। वह कहते हैं, इसके अलावा मुझे कोई और काम भी नजर नहीं आ रहा है। स्किल मैपिंग की चर्चा तो है पर इसके लिए मुझसे किसी ने संपर्क नहीं किया है। आप ही बताइए इन स्थितियों में वापस जाने के अलावा और क्या विकल्प हो सकता है?
स्थानीय स्तर पर काम देने के लिए बदलनी पड़ेगी मानसिकता
बछरावां की ग्राम पंचायत खैरहनी के प्रधान शैलेंद्र यादव कहते हैं कि उद्यमी स्थानीय के बजाय बाहर से कुशल श्रमिक लाकर काम करने में ज्यादा रुचि लेते हैं। उद्यमी मानते हैं कि बाहर से कुशल श्रमिक लाने पर औद्योगिक श्रम विवाद की स्थिति काफी कम हो जाती है। कुशल श्रमिकों को स्थानीय उद्योगों में अधिक से अधिक काम दिलाने के लिए इस मानसिकता को बदलना पड़ेगा।
तौबा! अब नहीं जाएंगे वापस
फैजाबाद की तहसील सदर के गांव काजीपुर गड़ निवासी दिग्विजय विश्वकर्मा गुजरात में फर्नीचर का काम करते थे। वह बताते हैं, एमपी बॉर्डर पर मेरी बाइक रोक ली गई,
जो अभी भी वहीं पड़ी हुई है। घर लौटने के लिए काफी रास्ता पैदल तय किया। इतना झेलकर घर पहुंचा हूं कि अब तो कम से कम तीन साल तक वापस नहीं जाना चाहूंगा।

