कोरोना यानी लोगों को भयभीत कर डर की अफीम से मुनाफा कमाना ? रामचंद्र शुक्ल

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आज मेरे गांव में एक ऐसे युवक की मौत के बाद हुआ तेरहवीं का भोज था, जो लाक डाउन के दूसरे चरण में नौकरी छूट जाने के बाद पंजाब के लुधियाना शहर में बीमार पड़ा और एक सप्ताह तक बीमारी का इलाज न हो पाने तथा पास में खाने पीने के लिए धन न होने के कारण भूख व बीमारी से मर गया. उसकी लाश कमरे में तीन दिन तक सड़ती रही. पड़ोसियों को जब बदबू महसूस हुई तो उसका कमरा खोल कर देखा गया तो वह कमरे में मरा पड़ा था.
कोरोना की दहशत के कारण उसे किसी ने छुआ तक नहीं. पुलिस को सूचना दी गई तो वह एम्बुलेंस आदि के साथ आई और उसकी लाश को जांच के लिए अस्पताल ले गयी. उसके कोरोना की जांच रिपोर्ट आने में तीन दिन और लग गये, तब तक उसकी लाश पोस्टमार्टम हाउस में पड़ी रही।.जांच में उसे कोरोना निगेटिव पाया गया.
पोस्टमार्टम रिपोर्ट में डाक्टरों ने पाया कि ‘उसकी मौत भूख कुपोषण के चलते हुए बुखार का समय पर इलाज न होने के कारण हुई.’ सातवें दिन उसका एक लावारिश के रूप में लुधियाना में ही दाह संस्कार करके शहर में रहने वाले गांव के ही एक परिचित द्वारा उसके मौत की खबर उसकी सौतेली मां व बाप को टेलीफोन द्वारा गांव को दी गई.
पता चला है कि उसके द्वारा अपनी बीमारी की खबर अपने गांव में छोटे भाई व मां बाप को दी गई थी, पर कोरोना के भय व लाकडाउन के कारण उसे लेने कोई लुधियाना नहीं जा सका और न ही कोई आर्थिक सहायता ही भेजी गई. उसकी मौत की खबर गांव/घर में आने के बाद उसकी क्रियाकर्म व तेरहवीं का तमाशा किया गया.
(यह एक उदाहरण मात्र है, पर हजारों लोग कोरोना जनित भय और लॉकडाऊन से उपजी परिस्थितियों में बेहतर ईलाज के वगैर और भूख से मर चुके हैं. यह दुर्भाग्य ही है कि ऐसे लोगों की तादाद बढ़ती ही जा रही है. इसके अतिरिक्त सैकडों की तादाद में ऐसे लोग भी हैं जिन्हें लॉकडाऊन के नाम पर पुलिस ने पीट-पीटकर मार डाला है. – सं.)
कोरोना के नाम पर जो लोग भी गपोड़ेबाजी करके जनता को डरा रहे हैं या जीवन की नश्वरता के संबंध में दार्शनिक ज्ञान बघार रहे हैं, वे उस मनोवैज्ञानिक युद्ध में सत्ता के हाथ की कठपुतली बन कर जाने-अनजाने एक राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र में शामिल हो चुके हैं.
पूंजीवाद जब जब संकटग्रस्त होता है या मंदी का शिकार होता है, तब-तब जनता को भयभीत करने के लिए ऐसे ही मनोवैज्ञानिक हथियार ईज़ाद करता है या फिर युद्ध प्रायोजित करता है. पहला व दूसरा महायुद्ध इस मुनाफाखोरी के बड़े उदाहरण हैं, जब दूसरे देशों की जमीन व प्राकृतिक संसाधनों को हड़पने के लिए व हथियार बेचने के लिए बड़े-बड़े नरसंहार कराए गए.
इसके बाद भी देशों का विभाजन कराके व पड़ोसी देशों में दुश्मनी पैदा करके युद्ध प्रायोजित किए गए तथा बड़े पैमाने पर युद्धक विमान टैंक बंदूकें व मशीनगनें बेचकर मुनाफा कमाया गया. भारत-पाकिस्तान, भारत-चीन, उत्तर कोरिया व दक्षिण कोरिया, ईरान व ईराक तथा उत्तरी वियतनाम तथा दक्षिणी वियतनाम के बीच युद्ध इसके उदाहरण हैं.
1984 में अमेरिका व फ्रांस एड्स का कोरोना जैसा ही भय फैलाकर मुनाफा कमाने का जरिया पैदा कर चुके हैं. आज भी एड्स के नाम पर दुनिया के अधिकांश देशों में बजट का बड़ा हिस्सा आवंटित किया जा रहा है.इसकी अधिकांश महंगी दवाओं का उत्पादन अमेरिका में हो रहा है. सभी देश अमेरिका से एड्स की दवाएं खरीद रहे हैं.
इस बार कोरोना के नाम पर फैलाए जा रहे षड्यंत्र में अमेरिका व चीन शामिल हैं. लक्ष्य वही पुराना है – जनता को भयभीत करके मुनाफा पैदा करना. भारत जैसे देशों में अभी तक मास्क व सेनेटाइजर महंगे दामों पर बेचकर मुनाफा पैदा किया जा रहा है. जनता को निजी तौर जांच किट की उपलब्धता नहीं है. अभी यह सुविधा कुछेक मेडिकल कालेजों व अस्पतालों में उपलब्ध है..यह भी सुनने में आ रहा है कि निजी पैथालॉजी में कोरोना की जांच के लिए 5000 रुपये तक लिए जा रहे हैं.
आज की तारीख में सूचना भी एक शक्ति है. सूचना के स्रोतों पर जिसका एकाधिकार है, वह जनता से जो भी चाहे मनवा सकता है या सत्ता व तंत्र के जरिए मानने पर मजबूर कर सकता है. सूचनाओं व उनके प्रसार के स्रोतों पर किन शक्तियों का कब्जा है, यह किसी से छिपा नहीं है.
दुनिया भर में कोरोना के नाम पर वैसी ही डर की अफीम जनता को पिलाई जा रही है, जैसी धर्म व ईश्वर के नाम पर अब तक जनता को पिलाई जाती रही है. मनुष्य के साहस व ज्ञान से बड़ा कुछ भी नहीं है. पर वर्तमान में भारत सहित दुनिया के कई बड़े देशों पर दक्षिणपंथी शासकों का कब्जा है और उन्होंने तरह-तरह के झूठे प्रचार को अपना बड़ा हथियार बना लिया है.
आज की तारीख में एक नहीं हजारों गोएबल्स पैदा हो चुके हैं दुनिया भर में. सबसे बड़ा गोएबल्स तो मीडिया बन चुका है. ऐसी एकध्रुवीय दुनिया में जनता के लिए सच क्या है व झूठ क्या है, इसका पता लगाना बेहद मुश्किल काम हो गया है.
कोरोना के नाम पर जनता की एकता को तोड़ना, उसे भयभीत कर मुनाफा कमाना तथा पूंजीवाद को मंदी से उबारने सहित कई लक्ष्य हैं, जो एक साथ पूरे हो रहे हैं.इस माहौल में आम लोग कोरोना से नहीं बल्कि भय व भूख से मर रहे हैं.
जनता कर्फ्यू व थाली बजवाने के बजाय शासकों की नेकनीयती तब मानी जाएगी, जब वे जन स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करने के लिए बजट में पर्याप्त बढ़ोत्तरी करें तथा स्वास्थ्य सेवाओं का पर्याप्त आधारभूत ढांचा तैयार करें. जाहिर है वे ऐसा नहीं कर रहे हैं तथा जनता में भय पैदाकर तरह-तरह के टोटके सिखाकर मुनाफा पैदा कर रहे हैं.
भारत में रक्षा बजट पर देश के कुल बजट का 15% तथा स्वास्थ्य सेवाओं के लिए 2% से भी कम धनराशि आवंटित की जा रही है. इसी से आप देश में स्वास्थ्य सेवाओं की हकीकत को समझ सकते हैं. शिक्षा व स्वास्थ्य में निजीकरण को बढावा दिया जा रहा है.
राम चन्द्र शुक्ल की कलम से –

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