CAG ने किया बड़ा खुलासा- केंद्र सरकार द्वारा ‘छिपाया’ गया चार लाख करोड़ रुपये का कर्ज और खर्च

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CAG(कैग) ने मोदी सरकार(Modi Govt) के वित्तीय प्रबंधन पर बड़ा खुलासा किया है. चार लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की धनराशि के बजट के प्रावधान से बाहर खर्च और कर्ज पर सवाल खड़े किए हैं.
नई दिल्ली: CAG Report 2018: सीएजी (CAG report) ने नरेंद्र मोदी सरकार(Narendra Modi Government) के वित्तीय प्रबंधन पर बड़ा खुलासा किया है. कैग की रिपोर्ट के मुताबिक, मोदी सरकार ने चार लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का खर्च और कर्ज यानी उधारी छिपाने का काम किया है. इस धनराशि का जिक्र बजट के दस्तावेजों में नहीं है. माना जा रहा है कि राजकोषी घाटे के संकेतकों और आंकड़ों को दुरुस्त रखने के लिए सरकार ने ऑफ बजट फाइनेंसिंग (Off-budget financing) की तरकीब का इस्तेमाल किया.
खाद्यान्य और उर्वरकों पर सब्सिडी, सिंचाई, ऊर्जा परियोजनाओं सहित अन्य तमाम पूंजीगत खर्चों को पूरा करने के लिए सरकार ने बजट से बाहर जाकर दूसरे सोर्स से पैसे की व्यवस्था की. ताकि बजट के लेखे-जखे में उधारी न दिखे, इसके लिए उपभोक्ता , रेल और ऊर्जा मंत्रालय में खासतौर से ऑफ बजट फाइनेंसिंग सिस्टम अपनाया गया. सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में इसको लेकर मोदी सरकार की जबर्दस्त खिंचाई की है.
कैग (CAG) ने कहा है कि ऐसे खर्चों और उधारियों का जिक्र कायदे से बजट में होना चाहिए. क्योंकि ऑफ बजट फाइनेंसिंग (Off-budget financing) से जुड़े खर्च संसद के नियंत्रण के बाहर होते हैं. जिस पर चर्चा और समीक्षा नहीं होती. वहीं बकाए के हर साल बढ़ने के चलते सरकार को अधिक ब्याज के रूप में सब्सिडी पर ज्यादा खर्च झेलना पड़ता है.
यह तरकीब वित्तीय लिहाज से काफी जोखिमपूर्ण होती है. जब सार्वजनिक उपक्रम लोन चुकता करने में विफल होते हैं तो आखिर में देनदारी सरकार के सिर पर ही आती है. कैग ने कहा है कि डिस्क्लोजर स्टेटमेंट के जरिए ऑफ बजट फाइनेंसिंग की धनराशियों का खुलासा होना चाहिए. इसकी बड़े पैमाने पर समीक्षा की जरूरत है. इस बारे में जवाब तलब करने पर संबंधित मंत्रालयों ने जुलाई, 2018 में बताया कि केंद्रीय सार्वजनिक उपक्रमों को स्वायत्ता है.
उनकी उधारी स्वतंत्र व्यापार उपक्रमों के लिए होती है. जहां सरकारी समर्थन सिर्फ एक बेहतर ब्याज दर प्राप्त करने में मदद करता है. ऑफ बजट वित्तीय व्यवस्था एफसीआई की कार्यशील पूंजी की आवश्यकता को पूरा करने के लिए है, जो बैकिंग स्त्रोतों से स्वतंत्र रूप से मिल रहा है.
दरअसल, देश में राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन(FRBM)अधिनियम, 2003 लागू है. इसका मकसद अर्थव्यवस्था में वित्तीय अनुशासन को संस्थागत करना, राजकोषीय घाटे को कम करने और और आर्थिक प्रबंधन में सुधार करना है. सीएजी ने वर्ष 2016-17 के दौरान जब ऑडिट की तो चौंकाने वाले मामले सामने आए.
वर्ष 2018 की 20 वीं रिपोर्ट (CAG Report of 2018) को बीते आठ जनवरी को सीएजी ने संसद में पेश किया. एनडीटीवी ने इस रिपोर्ट की पड़ताल की तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आए. कैग ने ऑफ बजट फाइनेंसिंग को लेकर रिपोर्ट में कुल चार केस स्टडी पेश किए हैं.
केस 2- कैग (CAG Report of 2018) ने कहा है कि रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय ने जितना बजट जारी किया, वह उर्वरकों पर दी गई सब्सिडी के लिहाज से पर्याप्त नहीं रहा. सरकार ने बाकी बकाए को टालने के लिए ऑफ बजट फाइनेंसिंग तरकीब का इस्तेमाल किया और इसे अगले वित्तीय वर्ष के लिए टाल दिया गया. साल दर साल बकाया बढ़ता गया.
मिसाल के तौर पर वर्ष 2016-17 में सरकार ने 70, 100 करोड़ रुपये की सब्सिडी उर्वरकों पर दी, जिस पर 39057 रुपये के बकाए को सरकार भुगतान नहीं कर पाई तो इसे अगले साल के लिए टाल दिया गया.
केस 3- त्वरित सिचाई लाभ कार्यक्रम (AIBP) के तहत भी ऑफ बजट के तहत धनराशि खर्च हुई. इस कार्यक्रम के जरिए राज्यों की अधूरी सिंचाई परियोजनाओं को पूरा कराया जाना था. 2015-16 और 2016-17 में केंद्र सरकार ने क्रमशः 2549.01 और 999.86 करोड़ खर्च किए.
नाबार्ड के फाइनेंशियल स्टेटमेंट की पड़ताल पर पता चला कि 9086 करोड़ के बॉन्ड 2016-17 में जारी हुए, ताकि दीर्घकालीन सिंचाई निधि( (LTIF) के लिए फंड जुटाया जा सके. नाबार्ड ने 3,336.88 करोड़ रुपये
केस 4- कैग की छानबीन में पता चला कि इंडियन रेलवे फाइनेंस कारपोरेशन(IRFC) पर 2016-17 में लॉन्ग टर्म उधारी 96,710.26 करोड़ और शॉर्ट टर्म 5769.35 करोड़ रुपये रहा. इसकी स्थापना 1986 में हुई.
ताकि भारतीय रेलवे की परियोजनाओं की वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके. रेल मंत्रालय ने विदेशी ऋणदाताओं को लेटर ऑफ अंडरटेकिंग्स देकर कहा कि अगर (IRFC द्वारा बकाए को न चुकाने की स्थिति में रेल मंत्रालय इसकी जिम्मेदारी उठाएगा.
केस 5- पावर फाइनेंस कॉर्पोरेशन लिमिटेड PFC )का वर्ष 2016-17 तक लॉन्ग टर्म लोन करीब 2,00187 करोड़ रहा तो शार्ट टर्म लोन 2401 करोड़ रुपये का रहा. पॉवर सेक्टर की वित्तीय संस्था के रूप में यह 1986 में अस्तित्व में आया. यह 1998 में नॉन बैकिंग फाइनेंस कंपनी(y (NBFC) में रजिस्टर्ट हुआ. देश के ऊर्जा क्षेत्र की सभी परियोजनाओं की यह नोडल एजेंसी है. 31 मार्च 2017 तक भारत सरकार इसमें 66 प्रतिशत का हक रखती है.
कैग ने दिए सुझाव
कैग ने इन चार उदाहरणों के जरिए बताया कि सरकार अपनी वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ऑफ बजट वित्तीय व्यवस्था पर ज्यादा निर्भरता दिखा रही है, यह राजकोषीय संकेतकों के लिहाज से अच्छा नहीं है. बेहतर है कि सरकार ऑफ बजट फाइनेंसिंग को लेकर एक फुलप्रूफ पॉलिसी फ्रेमवर्क बनाए. ऑफ बजट फाइनेंसिंग के तहत सभी बकायों का लेखा-जोखा संसद में भी पेश किया जाए, जिससे ऐसे खर्चों पर संसद का नियंत्रण स्थापित हो सके.
क्या होता है ऑफ बजट फाइनेंसिंग ?
यह वह खर्च होता है, जिसका लेखा-जोखा बजट में नहीं होता. व्यावहारिक रूप में कहें तो बजट से बाहर की उधारी और खर्च ऑफ बजट फाइनेंसिंग है. सीएजी का मानना है कि चूंकि इस तरह की उधारी और खर्चों का असर देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है, इस नाते इसका जिक्र बजट में होना चाहिए. नहीं तो बजट से बाहर का मामला होने के कारण देश की संसद का ऐसी उधारियों और खर्च पर नियंत्रण नहीं होता. क्योंकि इसका हिसाब-किताब संसद में पेश नहीं होता. जानकार बताते हैं कि सरकार राजकोषीय घाटे बढ़ने पर आलोचनाओं से बचने के लिए ऑफ बजट फाइनेसिंग का दांव चलती है.
जिससे खर्च और उधारियां बजट के दस्तावेज पर दिखती तो नहीं हैं, मगर उसकी कीमत अर्थव्यवस्था को चुकानी पड़ती है. बजट में जिक्र न होने से राजकोषीय घाटे के आंकड़ों पर इसका असर नहीं पड़ता. ऐसा नहीं है कि ऑफ बजट फाइनेसिंग नियम विरुद्ध है . दुनिया भर की सरकारें इसका इस्तेमाल करती है. राजकोषीय संकेतकों की गणना के समय खर्च, कर्ज, उधारी और ब्याज की गणना नहीं होती, जिससे यह चीजें छुप जाती हैं.
एक उदाहरण से इसे समझिए- किसी सड़क के निर्माण के लिए सरकार को पांच हजार करोड़ रुपये चाहिए. सरकार अगर सीधे किसी स्तर से इतना पैसा उधार लेगी तो उसे बजट में दिखाना होगा. ऐसे में सरकार स्पेशल पर्पज व्हीकल(एसपीवी) बनाती है. यह एसपीवी सरकार की गारंटी पर पर सड़क निर्माण के लिए पैसा उधार देगा. फिर एसपीवी टोल टैक्स वसूल कर उस उधार को चुकता करेगा. अगर टोल टैक्स से वसूली नहीं हो पाती तो सरकार को मदद करनी पड़ती है. इस प्रकार देखते हैं कि ऐसे खर्च भले बजट से बाहर रखें जाएं, मगर उसका असर सरकार और अर्थव्यवस्था पर पड़ता है.

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