हज़ारों मील लंबे रास्ते तुझको बुलाते,
दुखड़े सहने के वास्ते तुझको बुलाते….
ये शब्द गीत और राग फिल्मी हो सकते हैं, पर ये जिसे वयां कर रहे हैं, वह दर्द हकीकत है, जो हर रोज मैं देखता सुनता और महसूस करता हूँ
अपने पास की सड़कों पर मज़दूर के सैलाब को देखकर उन बच्चों की चीखों को सुनकर उन माताओं के दर्द को महसूस कर जो सैकड़ों मील लंबे रास्तों पर कुछ यूं ही कदम दर कदम वो बस चलते ही जा रहे हैं।
सो गयीं हैं ये सारी मंजिलें, ये जहां और ये रास्ते….
मैं चल रहा हूँ, क्योंकि मैं मजबूर हैं, मैं मज़दूर हूँ…
कभी गोद में, कभी पीठ पर, कभी थक हारकर सड़क किनारे बैठ जाना और दिनभर में 100 बार पूंछना कि-
मम्मी मम्मी अभी अम्मा का घर कितनी दूर और है…कब आएगा अम्मा का घर,
ऐसा ये बच्चे पिछले कई दिनों से पूंछ रहे हैं, मम्मी बोलती है, बस थोड़ी दूर और, बस घर आने ही वाला है, इन बच्चों को नहीं पता कि ये इस तरह अम्मा का घर पूंछते पूंछते 200 किलोमीटर तक आ चुके हैं वहीं 250 किलोमीटर का पैदल सफर अभी और भी बांकी है,
ये बच्चे ये मां और ये बाप, ये मज़दूरी और ये मज़बूरी,
कभी चार कदम भी जिन्हें मम्मी पापा ने पैदल नहीं चलने दिया, आज मीलों उनकी उंगली पकड़कर चलते ही जा रहे हैं… ।
ये भूंख और ये थकावट, न गाड़ी है न घोड़ा है तुझे पैदल ही जाना है,
तीन बच्चे और दिल्ली से लखीमपुर खीरी तक 450 किलोमीटर का पैदल सफर, अभी तो कासगंज आया है, न जाने कितने और शहरों को पैरोंतले रौंदकर मुकाम तक पहुंचना है।

मैं तो इस भाव को महसूस करने की कल्पना मात्र से ही सिहर उठता हूँ, इनका क्या, ये तो इस दर्द के साथ जी रहे हैं।
ये हकीकत है उन तमाम प्रवासी दिहाड़ी मज़दूरों की जो दो वक्त की रोजी रोटी खाने कमाने के लिए अपना घर द्वार छोड़कर सैकड़ों हज़ारों किलोमीटर दूर परदेस गए।
लॉक डाउन की अवधि को दो माह होने जा रहे हैं। जो लोग एक दिन कमाकर अगले दिन को नहीं खा सकते, वह 50 दिनों तक परदेश में बिना मज़दूरी कैसे टिके रहते। भूंखे पेट कोई कब तक आपदा के नियमों का पालन कर सकता है।

