एक बार इस्तेमाल होने वाली प्लास्टिक पर प्रतिबंध से इस उद्योग पर भले ही मार पड़ी हो,
लेकिन प्लास्टिक के विकल्प के तौर पर इस्तेमाल होने वाली चीजों के कुटीर, घरेलू और सूक्ष्म उद्योग कानपुर में पनपने लगे हैं।
बीते छह माह में दो सौ से ज्यादा इकाइयां अस्तित्व में आईं हैं।
कागज, गत्ता, सुपाड़ी पत्ता व अन्य तरह के बायोडिग्रेडेबल (स्वत: नष्ट होने वाला) आइटम से बनने वाले उत्पादों ने बाजार में जगह बना ली है।
भविष्य में इस उद्योग में गुंजाइश की वजह से इससे जुड़ी मशीनरी की मांग बढ़ गई है।
लोन के लिए बैंकों के पास इस उद्योग से जुड़े प्रोजेक्ट पहुंच रहे हैं।
प्लास्टिक उद्योग से जुड़े 50 से ज्यादा कारोबारी वैकल्पिक उद्योग की तरह शिफ्ट हो रहे हैं।
इसका असर ये हुआ कि प्लास्टिक उद्योग से बेरोजगार हुए लोग वैकल्पिक उद्योग में जगह बना रहे हैं।
दो से पांच लाख में शुरू होता है काम
दो माह पूर्व इस व्यवसाय में आए कारोबारी भरत केसरवानी बताते हैं कि
प्लास्टिक रहित दोना-पत्तल, गिलास, थाली व कपड़े के झोले बनाने का काम दो से पांच लाख रुपये में शुरू किया जा सकता है।
शहर के लाटूश रोड, दिल्ली व गुजरात में इसकी मशीनें 65,000 से डेढ़ लाख रुपये में मिलती हैं।
एक लाख रुपये का कच्चा माल और इतनी ही रकम कार्यशील पूंजी के तौर पर रख लें तो
तीन लाख रुपये में दो कमरे भर की जगह में यह काम शुरू किया जा सकता है।
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एक मशीन के उत्पादन से 10 से 15 हजार रुपये कमाए जा सकते हैं।
पनकी निवासी शिवांगी पांडेय ने आठ महीने पहले सुपाड़ी के पत्ते से कटोरी, प्लेट, थाली, गिलास आदि बनाना शुरू किया था।
दक्षिणी राज्यों में सुपाड़ी के पत्ते के बर्तन इस्तेमाल करने का खूब चलन है।
इन्होंने वहीं से ये सब बनाने का प्रशिक्षण लिया। फिर इस्पात नगर में खुद की फैक्ट्री लगाई।
हालांकि ऑटोमेटिक मशीन में काम होने की वजह से इनका प्रोजेक्ट महंगा है,
लेकिन पर्यावरण के लिहाज से व कागज-गत्ते से बने आइटम से ज्यादा मजबूत और टिकाऊ होता है।
इस्तेमाल करने के बाद इन बर्तनों को जमीन में दबा दिया जाए तो ये खाद का भी काम करते हैं।
इन्होंने 25 लाख रुपये से इस उद्योग की शुरुआत की थी।
शिवांगी बताती हैं कि उनके यहां इस काम में सभी कर्मचारी महिलाएं ही हैं।