द कश्मीर फाइल्स फिल्म जिसने भी देखी हो गया भाव- विभोर नम हुई आंखें और मस्तिष्क हुआ शून्य

इस फिल्म के निर्माता विवेक अग्निहोत्री के साहस को देश का रहा नमन

ए के दुबे
लखनऊ। द कश्मीर फाइल्स फिल्म कोई काल्पनिक फ़िल्म भर नहीं है 1990 में कश्मीर में मुसलमानों द्वारा किया गया हिन्दुओं के नृशंस नरसंहार का जीवंत दुहराव ही सेल्युलाइड पर उकेर दिया गया है। जैसे आंखों के आगे सब कुछ होता देख रह हो आदमी क्रोध,घृणा से उबल रहा है पर निरुपाय है नेत्रहीन सरकार, दलाल मीडिया, अब्दुल्ला आदि मुस्लिम आतंकियों के आगे यहाँ की सारी संस्थाएँ आत्मसमर्पण किये बैठी हो और उन्हें पुरस्कृत कर रही हो।
जेएनयू के भ्रष्ट,लम्पट वामपंथी प्रोफेसर गैंग किस तरह छात्रों के दिल दिमाग में जहर इंजेक्ट कर अपना नैरेटिव सेट कर छात्रों को गुमराह ही नहीं करते बल्कि अपने एजेंडा के तहत उन्हें अपनी ही तरह गद्दार भी बनाते है यह कथा भी साथ-साथ चलती है बल्कि कहा जाए, जेएनयू के परिवेश से ही कश्मीर की आज़ादी की मांग शुरू करने के बहाने कश्मीर की नरसंहार-गाथा का खुलासा भी होता जाता है जिसके सच को ही वामियों ने बदल दिया था भले बाद में जाकर एक ब्रेनवाश कर दिये गए छात्र द्वारा ही किस तरह हिन्दुओं के कश्मीर के पौराणिक-ऐतिहासिक सच को दिखाया गया है वह इतिहास अद्भुत है जानने योग्य है। और समझने योग्य है।
कश्मीर से हिन्दुओं के नरसंहार और वहाँ से उनके भगाए जाने का प्रामाणिक दस्तावेज है यह फ़िल्म,भय पैदा करने के लिए लाइन में खड़ा कर दर्जनों स्त्री पुरुष बच्चों को गोली मार देने, एक औरत को लकड़ी चीरने की मशीन से चीर देने की घटनाएँ विचलित, बेचैन कर देती है यह फ़िल्म इस तरह से हिन्दुओं को जोड़ने का काम भी कर रही है यह बहुत बड़ी सफलता इस फ़िल्म की है यह फ़िल्म सभी भारतीयों के मन से कश्मीर सम्बन्धी फैलाये गए बहुत सारे झूठ, भ्रम आदि का पर्दाफाश करती है सच से आमना सामना करवाती है एक अपनेपन का रिश्ता जोड़ती है यह भाव पैदा करना इस फ़िल्म का अतिरिक्त योगदान है यह फ़िल्म यह सोचने पर भी विवश करती है कि देश के सभी हिन्दू कश्मीरी हिन्दुओं की तरफ से इतने वर्षों तटस्थ कैसे रहे ,क्यों रहे?यह उस भाव को झकझोर कर जगाती है निश्चित ही कश्मीर से अन्य जगहों पर जाकर बसे भयानक कष्ट सहने वाले कश्मीरी हिन्दुओं की महागाथा है यह फ़िल्म अपना इतना प्रभाव डाल सके कि केंद्र सरकार शीघ्र ही कश्मीर से भगाए गए हिंदुओं को उनके अपने घर वापस लौटने का सम्मानजनक और सुरक्षित प्रबन्ध कर सके।
इस फिल्म के निर्माता विवेक अग्निहोत्री के साहस को देश का रहा नमन
इसके निर्माता विवेक अग्निहोत्री, कलाकार अनुपम खेर, मिथुन चक्रवर्ती, पुनीत इस्सर, पल्लवी जोशी सहित इसके सभी कलाकारों ने अद्भुत और प्रशंसनीय काम किया है और इस फिल्म को बनाने के लिए विवेक के साहस नमन करना चाहिए। सभी देशवासियों को यह फ़िल्म अवश्य देखनी। मुसलमानों को भी यह फिल्म अवश्य देखनी चाहिए शायद उनके अन्दर भी उन आतंकियों के विरुद्ध मनुष्यता का ज़मीर जाग उठे और उनका नजरिया बदले।
यह फ़िल्म एक साथ कई कई सन्देश देती है जो भारत के लिए शुभ है
इसकी अपार सफलता की शुभ कामनाएँ यह फ़िल्म हिन्दुओं के लिए आतंकियों को चेतावनी देती और् भविष्यवाणी करती है कि यदि इसे बचना है तो कश्मीर की घटना से बड़ी कोई अन्य प्रेरणा नहीं हो सकती। जम्मू-कश्मीर के कुछ हिस्सों में गया हूँ माता वैष्णों देवी के दरबार में भी मत्था टेकने का सौभाग्य मिला है मन्दिरों के शहर जम्मू में घूमा फिरा हूँ वहाँ भारत-पाकिस्तान बॉर्डर तक भी घूमा हूँ आसपास के गाँव-कस्बे भी जहाँ आये दिन पाकिस्तानी गोली-गोले फटते है।
कारगिल युद्ध से ठीक पहले कश्मीर बाबा अमरनाथ के दर्शन के बाद घूमने पहुंच गया था और लोकल ट्रांसपोर्ट से खीर भवानी दर्शन सफर के दौरान शरीर में शिरहन सी महसूस हुई यदि आप टूरिस्ट घेरे के बाहर हुए तब यह महसूस होगा। कश्मीर के बारे में दबे मुँह किसी से पूछता था तो कोई बताना तो दूर इशारा कर के चुप करा देता था।भय की सिहरन तब जैसे रीढ़ के अंदर बहते स्वेद को बेचैन करते थे और घूम कर चुपचाप वापस चले जाने की सलाह देते थे पर वे जानकारी कुछ नही देते थे। यह फ़िल्म देखकर आज ऐसा लगा कि वे तो कुछ नहीं जितना सुना था। उन जैसे 5 लाख से ज्यादा किसी तरह पलायन को विवश कभी सम्पन्न,खुशहाल रहे कश्मीरी हिन्दुओं-पंडितों की दुर्दशा की ऐसी मार्मिक कहानी है यह फ़िल्म कि कोई भी व्यक्ति इसे देखकर कश्मीर का सत्य जानकर पसीजे बिना न रह सकेगा।
यह फ़िल्म 1990 के भयानक इतिहास की कथा इस तरह फुसफुसाती-दुहराती-गहराती है कि मन प्राण बेचैन हो उठता है
फ़िल्म के कई दृश्यों में वहाँ के एक वरिष्ठ नागरिक जिनके परिवार को उनके शिष्य और पड़ोसियों ने निर्ममता से मार डाला पर वे जीवित रहकर अपने एक गोद के शिशु को पालने के लिए जीवित रहते हैं जो धारा 370 हटाने की बात बराबर उठाते दिखते है
अंत में उसी युवा हो चुके पौत्र को अपने स्वप्न सुनाते प्राण त्याग देते है यह वही युवा है जिसे जेएनयू की एक प्रोफेसर ब्रेनवाश कर के कश्मीर का झूठ हजारों लड़के लड़कियों के साथ उसे भी परोसती है और इस तरह मानो वही सच हो वामपंथी नैरेटिव का इतना घिनौना रूप जब वहीं पर इस फिल्म द्वारा युवा ऋषि कश्यप के नाम पर बने कश्मीर, अदिगुरु शंकराचार्य, पाणिनि, अभिनवगुप्त , ललितादित्य आदि के माध्यम से इतिहास से साक्षात्कार कराता है तो लगता है कैसे कश्मीर के इतिहास को बुरी तरह आतंकियों, वामियों और इतिहासकारों ने बदल डाला है।
यह फ़िल्म कई कई स्तरों पर देश के सभी नागरिकों, विशेषकर हिन्दुओं के लिए चुनौती भरा सन्देश देती है कि आज अगर हिन्दुओं को यह जानकारी नहीं साझा हुई, आज अगर चिंतन नहीं होता तो यह देश, यह इतना बड़ा समुदाय भविष्य में आतंकियों द्वारा अपनी दुर्गति का अभिशाप झेलने को तैयार रहें। सत्ता,शासन-प्रशासन लीपापोती करते रहेंगे, मीडिया दलाली कर के सच को झूठ-झूठ को सच बनाता रहेगा, फिर वही झूठ इतिहास पर काबिज हो जाएगा और हम हिन्दू ही आतंकियों द्वारा मिटा दिए जाएँगे।

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