शराबबंदी पर सुप्रीम कोर्ट से नीतीश को बड़ा झटका, सरकार की याचिका खारिज

शराबबन्दी की वजह से अन्य मामलों के निपटारे में हो रही है देरी : चीफ जस्टिस

मुकेश कुमार सिंह

पटना (बिहार) : एक तरफ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने शराबबंदी को ना केवल अपना ड्रीम प्रोजेक्ट बना लिया है बल्कि इसको लेकर वे दिन-रात अभियान भी चला रहे हैं। लेकिन उनकी तमामं कोशिशों को सुप्रीम कोर्ट ने तगड़ा झटका दिया है।

सुप्रीम कोर्ट ने बिहार में शराबंदी के केस में आरोपियों की जमानत को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया है। बिहार में शराबबंदी से जुड़े मामले में नीतीश सरकार को सुप्रीम कोर्ट का ये सबसे बड़ा झटका माना जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने बिहार सरकार को झटका देते हुए, राज्य के शख्त शराब कानून के तहत आरोपियों को अग्रिम और नियमित जमानत देने को चुनौती देने वाली अपीलों को यह कहते हुए खारिज कर दिया है कि पटना हाईकोर्ट के 14 -15 जज पहले से ही ऐसे मामलों की सुनवाई कर रहे हैं।

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमणा की अध्यक्षता वाली पीठ ने बिहार सरकार की इस दलील को खारिज कर दिया कि आरोपी से जब्त की गई शराब की मात्रा को ध्यान में रखते हुए तर्कसंगत जमानत आदेश पारित करने के लिए दिशानिर्देश तैयार किए जाएँ। चीफ जस्टिस एन.वी.रमणा ने कहा है कि आप जानते हैं कि इस कानून (बिहार निषेध और उत्पाद शुल्क अधिनियम, 2016) ने पटना उच्च न्यायालय के कामकाज में कितना प्रभाव डाला है और वहाँ एक मामले को सूचीबद्ध करने में एक साल लग रहा है और सभी अदालतें शराब की जमानत याचिकों से भरी हुई हैं।

चीफ जस्टिस ने अग्रिम और नियमित मामलों के अनुदान के खिलाफ राज्य सरकार की 40 अपीलों को सिरे से खारिज कर दिया। इस दौरान उन्होंने कहा कि मुझे बताया गया है कि पटना हाईकोर्ट के 14-15 न्यायाधीश हर दिन इन जमानत मामलों की सुनवाई कर रहे हैं और इसकी वजह से कोई अन्य मामला नहीं उठाया जा पा रहा है। सुनवाई के दौरान बिहार सरकार की ओर से हाजिर हुए अधिवक्ता मनीष कुमार ने कहा कि शिकायत यह है कि उच्च न्यायालय ने कानून के गंभीर उल्लंघन में शामिल आरोपियों को बिना कारण बताए जमानत दे दी है जबकि कानून में 10 साल के जेल का प्रावधान है। इसके तहत, गंभीर अपराधों के लिए आजीवन कारावास की सजा का भी प्रावधान है। श्री कुमार ने कहा कि हमारी समस्या यह है कि शराब के मामलों में उच्च न्यायालय की ओर से लगातार जेल में बिताए गए कुछ समय के आधार पर ही जमानत के आदेश पारित किए जा रहे हैं।

इस तर्क पर, चीफ जस्टिस ने टिप्पणी करते हुए कहा कि तो आपके हिसाब से हमें सिर्फ इसलिए जमानत नहीं देनी चाहिए, क्योंकि आपने कानून बना दिया है। पीठ ने तब हत्या पर भारतीय दंड संहिता के प्रावधान का हवाला दिया और कहा कि जमानत और कभी-कभी, इन मामलों में अदालतों की ओर से अग्रिम जमानत भी दी जाती है।

गौरतलब है कि एक कार्यक्रम के दौरान, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने बिहार में शराबबंदी कानून का उदाहरण अदूरदर्शिता के तौर पर दिया था। कुछ दिन पहले ही चीफ जस्टिस ने कहा था कि देश की अदालतों में मुकदमों का अंबार लग जाता है। इसका सबसे बड़ा कारण, शराबबन्दी जैसे कानून का मसौदा तैयार करने में दूरदर्शिता की कमी होती है।

उदाहरण के लिए बिहार मद्यनिषेध निषेध अधिनियम 2016 की शुरुआत के चलते हाईकोर्ट में जमानत के आवेदनों की भरमार हो गई। इसकी वजह से एक साधारण जमानत अर्जी के निपटारे में एक साल का समय लग जाता है। बिना किसी ठोस विचार और उसके परिणाम को समझे हुए, लागू किये गए कानून मुकदमेबाजी की ओर ले जाते हैं।

बिहार पुलिस के रिकॉर्ड पर गौर करें तो, पिछले साल अक्टूबर माह तक बिहार मद्य निषेध और उत्पाद शुल्क कानून के तहत 3,48,170 मामले दर्ज किए गए और 4,01,855 गिरफ्तारियाँ की गईं। ऐसे मामलों में लगभग 20,000 जमानत याचिकाएं उच्च न्यायालय या जिला अदालतों में लंबित हैं।

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