बिहार में ना नेता असल मुद्दों की बात कर रहे हैं, ना जनता हिसाब माँग रही है, आखिर यह राज्य कैसे आगे बढ़ेगा?

राष्ट्रीय जजमेंट

बिहार विधानसभा चुनाव एक बार फिर उस पुराने ढर्रे पर लौट आए हैं, जहाँ मुद्दे नहीं, मतों का गणित और भावनाओं का ज्वार तय करता है कि सत्ता किसके हाथ जाएगी। सड़कों, स्कूलों, अस्पतालों, बेरोज़गारी, कृषि संकट या पलायन जैसे असली सवाल कहीं खो गए हैं। उनकी जगह ले ली है जातीय समीकरणों, धार्मिक ध्रुवीकरण और नेताओं की आपसी झड़पों ने।आज जब बिहार को विकास की सबसे अधिक आवश्यकता है, राजनीतिक दल उसी राजनीति को दोहरा रहे हैं जिसने राज्य को दशकों पीछे धकेला। हर पार्टी अपने-अपने “वोट बैंक” को साधने में लगी है। कोई पिछड़ों की बात कर रहा है, तो कोई अल्पसंख्यकों की, तो कोई युवाओं को सिर्फ नारों के सहारे बहला रहा है। न कोई ठोस दृष्टि प्रस्तुत कर रहा है, न ही कोई यह बता पा रहा है कि बिहार को देश के औसत विकास स्तर तक कैसे पहुँचाया जाएगा।चुनावी रैलियों में भाषणों का स्तर भी गिरता जा रहा है। तर्कों और नीतियों की जगह व्यंग्य, आरोप और अपमान ने ले ली है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जनता भी इस तमाशे का हिस्सा बनती जा रही है। वह नेताओं से जवाब मांगने की बजाय उनकी आपसी नोकझोंक को मनोरंजन की तरह ले रही है। यही उदासीनता लोकतंत्र की सबसे बड़ी कमजोरी बनती जा रही है।बिहार की सच्चाई यह है कि आज भी वहाँ के लाखों युवा रोजगार के लिए दिल्ली, मुंबई या पंजाब की ओर पलायन कर रहे हैं। गाँवों में बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएँ नदारद हैं, शिक्षा की गुणवत्ता गिरती जा रही है, और उद्योग लगभग नाममात्र के हैं। इन सबके बावजूद अगर चुनावी विमर्श में ये मुद्दे जगह नहीं पा रहे, तो यह न केवल राजनीतिक दलों की असफलता है बल्कि समाज की भी।आवश्यक है कि बिहार की जनता अब इस पुराने खेल को समझे। जाति, धर्म या परिवार के आधार पर वोट देने की बजाय, उसे यह देखना चाहिए कि कौन-सा दल उसके बच्चों के भविष्य की बात करता है। बिहार के मतदाता अगर इस बार भी भावनाओं में बह गए, तो राज्य एक और पाँच वर्ष पीछे चला जाएगा।लोकतंत्र में वही जनता सशक्त होती है जो सवाल पूछती है, जो नेताओं से वादों का हिसाब मांगती है। बिहार की जनता ने कई बार परिवर्तन की लहर चलाई है; अब फिर उसी सजगता की जरूरत है। यह चुनाव केवल सरकार बदलने का अवसर नहीं, बल्कि बिहार की दिशा तय करने का भी क्षण है। अगर इस बार भी मुद्दे हाशिये पर रहे, तो बिहार का भविष्य फिर से वही पुराना चक्र देखेगा— वादों का अंबार, हकीकत में ठहराव। और तब यह सवाल हमेशा गूंजता रहेगा: क्या बिहार सचमुच बदलना चाहता है?

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