अनावश्यक मिथ्याभ्रम
हम अपनी सोच में इस अनावश्यक चिन्तन में घिरे रहते है कि
हमारे से दूसरे की जिन्दगी अच्छी है । यह अनावश्यक मिथ्याभ्रम
का कोई तथ्य नहीं है क्योंकि हम भूल जाते हैं कि हम भी तो दूसरों के लिए हैं एक दूसरे ही हैं । मन की लोभी तृष्णा का कोई अंत नहीं होता।
जैसे-जैसे सोचा हुआ हाशिल होता है वैसे-वैसे और नयी चाहत बढ़ने लगती है।जिसका जीवन में कभी अंत ही नहीं होता।जीवन की इस आपा-धापी में जीवन के स्वर्णिम दिन कब बीत जाते हैं उसका हम्हें भान भी नहीं रहता। आगे जीवन में कभी सपने अधूरे रह गये तो किसी के मुँह से यही निकलता है कि कास अमुक काम मैं अमुक समय कर लेता।उनके लिये बस बचता है तो किसी के कास तो किसी के जीवन में अगर।
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